रायबरेली से कब जुड़ा नेहरू-गांधी परिवार का रिश्ता? पढ़ें ये जनवरी 1921 का ऐतिहासिक किस्सा

लोकसभा के पांचवें चरण का चुनाव प्रचार थम चुका है. रायबरेली भी इस चरण की उन सीटों में शामिल है, जहां 20 मई को वोट डाले जाएंगे. रायबरेली से नेहरू-गांधी परिवार के रिश्तों का पुराना इतिहास है. वहां से फिरोज, इंदिरा और सोनिया गांधी चुनाव जीतते रहे हैं. 2024 में सोनिया गांधी ने प्रत्यक्ष चुनावों को अलविदा कहा, लेकिन रायबरेली की परिवार की विरासत उन्होंने अपने पुत्र राहुल गांधी को सौंप दी है. वोटर भी इसे स्वीकार करें, इसके लिए उन्होंने अपने परिवार के रायबरेली के एक सदी से ज्यादा पुराने रिश्तों की भावुक याद दिलाई. नेहरू-गांधी परिवार से रायबरेली के जुड़ाव का सिलसिला जिस ऐतिहासिक घटना से शुरू हुआ उसका उल्लेख पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में किया है. पढ़िए वह पूरा प्रसंग…

7 जनवरी 1921, नागपुर कांग्रेस से पंडित नेहरू वापस ही हुए थे, तभी रायबरेली से तार मिला. “फौरन आइए. यहां उपद्रव की आशंका है.” रायबरेली में कुछ किसान नेताओं की गिरफ्तारी से किसान काफी उत्तेजित थे. शहर के एक छोर पर स्थित मुंशीगंज कस्बा सई नदी के तट पर बसा है. नदी तट पर बड़ी संख्या में किसान एकत्रित थे. नेहरू को रायबरेली स्टेशन पर पहुंचते ही पता चला कि कस्बे के ठीक बाहर सई नदी के दूसरे किनारे पर किसानों की बड़ी भीड़ को पुलिस बल ने रोक रखा है. फिर भी पुलिस घेरे को तोड़ते हुए किसान आगे बढ़ रहे थे. वहां के हालात काफी उत्तेजक थे. नेहरू ने लिखा , “मैं फौरन नदी की तरफ गया, जहां किसानों का सामना करने के लिए फौज तैनात थी.”

प्रशासन का हुक्म: वापस जाइए

प्रशासन वहां नेहरू को पहुंचने नहीं देना चाहता था. रास्ते में ही डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट का लिखा फौरन वापसी का एक फरमान उन्हें सौंपा गया. उसी कागज के पुश्त पर नेहरू ने लिखा, “कानून की किस दफा के तहत मुझे वापस हो जाने के लिए कहा गया है. जब तक इसका जवाब नहीं मिलेगा, तब तक अपना काम जारी रखना चाहता हूं.” नेहरू आगे बढ़ते रहे लेकिन जैसे ही नदी तक पहुंचे दूसरे किनारे से गोलियों की आवाजें सुनाई पड़ीं. फौज ने पुल पर रोक दिया. इसके बाद भी नेहरू वहां से हटने को तैयार नहीं थे.

इस पार सभा, उस पार गोलियां

पंडित नेहरू की मौजूदगी की खबर ने आसपास मौजूद किसानों में जोश और हिम्मत दी. वे तेजी से नेहरू की ओर बढ़े और उन्हें घेर लिया. यह डरावना मंजर था. दूसरे किनारे किसानों पर गोलियां बरस रही थीं. चारों ओर सैनिक बिखरे हुए थे. मगर इसके बाद भी लगभग दो हजार किसानों की सभा को नेहरू ने संबोधित किया. उनका डर कम करने की कोशिश की. इसी बीच डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट उस ठिकाने से वापस हुए ,जहां गोलियां चल रही थीं. उन्होंने नेहरू को अपने घर ले जाने के लिए राजी किया. नेहरू के मुताबिक, उन्होंने लगभग दो घंटे तक उनको अपने साथ रोके रखा. उनका मकसद नेहरू को शहर और किसानों से दूर रखना था.

मुंशीगंज गोलीकांड : दूसरा जलियांवाला बाग

आजादी के संघर्ष में 7 जनवरी 1921 के ” मुंशीगंज गोलीकांड ” को जलियांवाला बाग कांड की तरह याद किया जाता है. इसमें साढ़े सात सौ किसान गोलियों से भून दिए गए थे. लगभग डेढ़ हजार जख्मी हुए थे. दस हजार राउंड फायरिंग करके अंग्रेजी हुकूमत ने जुल्म की हदें पार कर दी थीं. अवैध लगान वसूली और तालुकेदारों- अंग्रेजों के शोषण से परेशान किसानों ने इसके दो दिन पहले 5 जनवरी 1921 को एक सभा की थी. अमोल शर्मा और बाबा जानकी दास ने इस सभा की अगुवाई की थी.

किसान आंदोलन को विफल करने के लिए पुलिस ने दोनों नेताओं को गिरफ्तार कर लखनऊ जेल भेज दिया था. इसके बाद इन दोनों की पुलिस द्वारा हत्या किए जाने की अफवाह फैली. पहले से ही नाराज किसानों का गुस्सा और भड़क गया. विरोध प्रदर्शन के लिए उन्होंने सई नदी के तट की ओर कूच किया. प्रशासन उन्हें रोकने के लिए किसी हद तक जाने को कमर कसे हुए था.

काश नेहरू उस भीड़ के बीच पहुंच पाते!

पंडित नेहरू के मुताबिक, किसानों ने पीछे हटने से इनकार किया था, लेकिन वे बिल्कुल शांत थे. मुझे पूरा यकीन है कि अगर मैं या जिनपर किसान भरोसा कर सकते, वहां होते और वे उनसे वहां से हटने को कहते, तो वे जरूर हट जाते. जिन लोगों पर वे भरोसा नहीं करते थे, उनका हुक्म मानने से उन्होंने इनकार किया. किसी ने मजिस्ट्रेट को तो मेरे आने तक ठहर जाने की सलाह दी थी, लेकिन उन्होंने इसे नहीं माना. जहां वे खुद नाकामयाब हो गए, वहां एक आंदोलनकारी को क्यों कामयाब होने देते? विदेशी सरकार का दारोमदार तो उसके रोब में ही होता है. उन्हीं दिनों रायबरेली में किसानों पर दो बार गोलियां चलीं. किसानों में चरखा चलाने का चलन बढ़ रहा था. असलियत में चरखा राजद्रोह का प्रतीक बन गया था. जिसके यहां चरखा मिलता, उसकी आफत आ जाती. चरखे जला दिए जाए जाते और लोग गिरफ्तार कर जेल भेज दिए जाते थे. रायबरेली और प्रतापगढ़ के देहाती इलाकों में किसानों और कांग्रेस के आंदोलनों को सख्ती से कुचला गया. दोनों आंदोलनों के खास चेहरे एक ही थे.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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