मैरिटल रेप को लेकर देश में लंबे समय से चली आ रही बहस अब एक निर्णायक मोड़ सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि वह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में उन प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर फैसला करेगा, जो पतियों को अपनी पत्नी के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाने पर रेप के अपराध से छूट देते हैं।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि इस मामले में संवैधानिक वैधता का प्रश्न प्रमुख है। इस दौरान, याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील करुणा नुंडी ने अपनी दलीलें पेश कीं। नुंडी ने आईपीसी और बीएनएस के उन प्रावधानों पर प्रकाश डाला, जो विवाहित पतियों को यौन संबंध के मामले में छूट प्रदान करते हैं भले ही इसमें पत्नी की सहमति न हो।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “यह एक संवैधानिक प्रश्न है। हमारे समक्ष दो पूर्व फैसले हैं और हमें इसका निर्णय करना है। मुख्य मुद्दा इन दंडात्मक प्रावधानों की संवैधानिक वैधता का है।” करुणा नुंडी ने तर्क दिया कि कोर्ट को उन प्रावधानों को निरस्त करना चाहिए जो असंवैधानिक हैं। उन्होंने दावा किया कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का उल्लंघन करते हैं।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि यदि छूट को समाप्त किया जाता है, तो क्या यह अपराध बलात्कार के सामान्य प्रावधानों के अंतर्गत आएगा या फिर कोर्ट को एक अलग अपराध का निर्माण करना होगा। कोर्ट को यह भी विचार करना है कि क्या वह इस छूट की वैधता पर फैसला दे सकता है।
गौरतलब है कि आईपीसी की धारा 375 के तहत एक अपवाद में कहा गया है कि यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाता है और पत्नी नाबालिग नहीं है, तो इसे बलात्कार नहीं माना जाएगा। इसी तरह, नई न्याय संहिता (बीएनएस) में भी इस अपवाद को बरकरार रखा गया है, जिसमें धारा 63 (बलात्कार) के अपवाद 2 में उल्लेख है कि यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाता है और पत्नी की उम्र 18 वर्ष से अधिक है, तो यह बलात्कार नहीं होगा।
केंद्र सरकार ने इस मामले में दलील दी कि बदलते सामाजिक और पारिवारिक ढांचे में इन प्रावधानों में बदलाव का दुरुपयोग भी किया जा सकता है। खासकर यह साबित करना कठिन होगा कि यौन संबंध सहमति से थे या नहीं। याचिका पर सुनवाई के दौरान दिल्ली हाई कोर्ट के 11 मई 2022 के विभाजित फैसले का भी जिक्र किया गया, जिसमें एक न्यायाधीश ने अपीलकर्ताओं को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने की अनुमति दी थी।
(पीटीआई इनपुट के साथ)